तमस (उपन्यास) : भीष्म साहनी
"तुम क्या चाहते हो, मैं सबके सामने नाड़ा खोलूँ?"
"मैं खोलने को नहीं कह रहा हूँ, मैं सिर्फ दिखाने को कह रहा हूँ।"
"दिखा दो यार, ख़त्म करो।"
कोहली ने अचकन का पल्ला उठाया। नीचे से खादी के कुर्ते का अगला भाग ऊपर को उठाया। नीचे पीले रंग का आजारबन्द लटक रहा था। शंकर लपककर आगे बढ़ गया और नाड़े को पकड़ लिया।
"देख लीजिए साहिबान, नाड़ा रेशमी है। हाथ के कते सूत का नहीं है। मशीनी है, अकड़े का है। आप खुद छूकर देख सकते हैं।"
"तो फिर? फिर क्या हुआ?"
“कांग्रेस-सदस्य रेशमी नाड़ा पहने? और आप उसे प्रादेशिक कांग्रेस का उम्मीदवार बनाकर भेजेंगे? कांग्रेस के कोई असूल हैं या नहीं?"
स्क्रुटिनी कमेटी के सदस्य एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। मज़बूर होकर कोहली का नाम काटना पड़ा। उस दिन से शंकर मेहताजी को फूटी आँख नहीं सुहाता था।
बख्शीजी परेशान हो रहे थे। न मास्टर रामदास पहुँचा न देसराज। गाएगा कौन? प्रभातफेरी में कम से कम एक तो गानेवाला चाहिए ही। कुछ न हुआ तो वह खुद ही गा लेंगे लेकिन जो लोग ज़िला कमेटी से तनख्वाह पाते हैं, उन्हें तो पहुँचना ही चाहिए।
“देख लेना मेहताजी, हम प्रभातफेरी शुरू कर देंगे। तीन गलियाँ लाँघ जाएँगे तो मास्टर दौड़ा आएगा। कहेगा बछड़ा दूध पी गया था, मैं क्या करता। इस तरह ये लोग काम करते हैं।" फिर अन्य सदस्यों को सम्बोधित करके बोले, “कश्मीरीलाल, अब और इन्तज़ार नहीं किया जा सकता। शुरू करो तुम।"
पर कश्मीरीलाल को लोगों की टाँग खींचने में मज़ा आता था। झट से जरनैल की ओर मुखातिब होकर बोला, “तकरीर करो जरनैल, तकरीर करो। प्रभातफेरी शुरू करने से पहले तकरीर होनी चाहिए।"
जरनैल को और क्या चाहिए। फौरन छड़ी झुलाता, लेफ्ट-राइट करता सड़क के किनारे एक पत्थर पर खड़ा हो गया।
“यह क्या कर रहे हो कश्मीरीलाल। यार कोई वेला-वक़्त देखा करो।" बख्शी ने खीझकर कहा। “तुम नहीं चाहते प्रभातफेरी हो तो सीधा कहो।" फिर जरनैल की ओर बढ़ आए। लेकिन जरनैल तकरीर शुरू कर चुका था।
“साहिबान..."
"कोई नहीं साहिबान-वाहिबान, नीचे उतर आओ।" बख्शी ने हाथ झुलाकर कहा, “उतारो यार इसे, क्यों तमाशा करवाते हो सुबह-सुबह।"
"मेरी जबान कोई बन्द नहीं कर सकता।" जरनैल ने पत्थर पर खड़े-खड़े कहा, और तकरीर शुरू कर दी :
“साहिबान...” अपनी खरज, फुसफुसाती आवाज़ में जरनैल बोलने लगा।
जरनैल की उम्र पचास के कुछ ऊपर रही होगी-पर बरसों की जेल के बाद उसके शरीर में कुछ रह नहीं गया था। जहाँ शहर के अन्य कांग्रेसियों को कम से कम बी-क्लास मिलता था, जरनैल को हमेशा सी-क्लास में डाला जाता रहा, जिससे वह बीमार भी पड़ता रहा और बालू से भरी रोटी भी खाता रहा। पर जरनैल ने न तो तोबा की, न ही अपनी जरनैली वर्दी को छोड़ा। जवानी के दिनों में लाहौर-कांग्रेस के समय वह अपने शहर से लाहौर में वालंटियर बनकर गया था। नेहरूजी के साथ वह भी रावी नदी के किनारे नाचा था जब पूर्ण स्वराज का नारा लगाया गया था। उसी दिन से वह वालंटियर की वर्दी पहनता आया था। जब दिन अच्छे होते तो उस वर्दी में कभी सीटी लग जाती, कभी तिरंगे की डोरी बँध जाती। दिन खस्ता होते तो वर्दी धुल तक नहीं पाती थी। न जरनैल को कहीं कोई काम मिला, न उसने किया। कांग्रेस के दफ्तर से पन्द्रह रुपए महीना प्रचारक का मेहनताना लिया करता था। जो बख्शीजी आनाकानी करें तो वहीं खड़ा होकर तकरीर करने लगता था। मन में सनक थी, उसी के बल पर ज़िन्दगी के दुख और क्लेश पार कर जाता था। उसका न घर था न घाट, न बीवी थी न बच्चा, न काम न धाम। हफ्ते में दो-तीन बार कहीं न कहीं से पिट आता था। पुलिस के लाठी-चार्ज में जहाँ बाकी लोग जान बचाकर निकल जाते थे, वहाँ जरनैल अपनी सनक का मारा अपनी छोटी-सी झुर्रियों-भरी छाती फैलाए खड़ा रहता था और पसलियाँ तुड़वाकर आता था।
“कश्मीरीलाल, उतारो यार इसे। सुबह-सुबह तमाशा दिखाने लगे हो।" अबकी बार मेहताजी ने ऊँची आवाज़ में कहा। पर जरनैल और भी डटकर खड़ा हो गया।